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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान


छः


''ऊठ! अरे उठ!'' राक्षस सैनिकों ने हनुमान को झकझोर दिया, ''यहां क्या कर रहा है? तेरे बाप का प्रासाद है कि आराम से खर्राटे ले रहा है!'' हनुमान उठ बैठे। सहसा उन्हें सब कुछ याद हो आया। रावण के महामहालय की दीवार को फांदकर जब बाहर निकले थे, तो एकदम हताश थे। शरीर की भूख, नींद और थकान मथे जा रही थी। मस्तिष्क था कि असफलता की भावना से जल-फुंक रहा था। कितना बड़ा उद्यम किया था हनुमान ने। पहले सागर संतरण किया और फिर रावण के महामहालय में घुसकर खोज-बीन कर सुरक्षित बाहर भी निकल आए। किन्तु जानकी का कहीं कोई पता नहीं चला। उनके मन की आशंका बार-बार मन में आती है; किन्तु हनुमान का तर्कशील मस्तिष्क उस बात को स्वीकार नहीं कर पाता। सीता के वध से रावण को कोई लाभ नहीं था; और रावण जैसा लंपट पुरुष, सीता जैसी सुन्दरी का वध कर भी नहीं  सकता था। उसे अपनी कामेच्छा पूर्ण करने, अपने शत्रु को अपमानित कर स्वयं को गौरवान्वित, अथवा राम के साथ अपनी इच्छानुकूल किसी भी प्रकार की संधि करने के लिए सीता को जीवित रखना ही चाहिए। और यदि सीता जीवित हों तो बन्दी बनाए रखने के लिए लंका से अधिक सुरक्षित स्थान और कौन-सा होगा। लंका में सबसे अधिक सुरक्षित स्थान रावण का अपना महल है।

किन्तु सीता वहां नहीं है...हुनमान केवल सीता को ही खोज नहीं पाए वरन् कोई सूचना भी प्राप्त नहीं कर पाए। न सीता के जीवित अथवा मृत होने की, न लंका में होने या न होने की। हनुमान का लंका में आना-न-आना एक समान हो रहा था। यहां आकर भी उनके पास उतनी ही सूचनाएं थीं, जितनी कि किष्किंधा में बैठे हुए थीं।

इसी हताशा की अवस्था में, थके-हारे, वे इस उद्यान में चले आए थे। इसी वृक्ष के-तने के साथ पीठ लगा कर बैठे थे। कदाचित् बैठे-बैठे ही उन्हें नींद आ गई थी और अब आकर इस राक्षस सैनिक ने जगाया है। हो सकता है, यह यहां का चौकीदार है। सूर्य भी तो सिर पर चढ़ आया था। लगता है कि सारा प्रातःकाल उन्होंने सोकर बिता दिया था।

उन्होंने पग बढ़ा दिए। ''कहां जा रहा है?'' राक्षस सैनिक ने टोका।

''तुम बताओ, कहां जाऊ?'' हनुमान उदासीन ढंग से बोले।

''पहले तू बता, तू है कौन?'' सैनिक रौबदार स्वर में बोला, ''और यहां क्या कर रहा है?''

''एक साधारण वानर हूं...''

''यहां आजीविका की खोज में आया होगा।'' सैनिक ने उनकी बात काट दी।

''हनुमान को उसकी सूझ आ गई। बोले, ''हां!''

''जिसे देखो, चला आ रहा है।'' सैनिक ने खीझ प्रकट की, ''तुम्हारे बाप का देश है? यहां क्यों आए? कहीं और क्यों नहीं गए?''

हनुमान की इच्छा हुई, उसका कण्ठ पकड़कर मरोड़ दें-अभी लंका के इस स्वामी की बुद्धि ठिकाने आ जाए, पर सारे शरीर पर एक प्रकार की जड़ता-सी छा रही थी। फिर अपनी असफलता से मन वैसे ही हताश हुआ बैठा था। अभी कोई और झंझट न खड़ा हो जाए।

''और आजीविका है कहां?'' हनुमान दयनीय ढंग से बोले।

''तो हमने ठेका ले रखा है।'' सैनिक की खीज बढ़ती जा रही थी, ''जंगलों में पैदा हो गए और चल दिए लंका की ओर। सारे हाट-बाजार पट गए लंका के, कंगले वानरों की भीड़ से। कोई घूमने आ रहा है, कोई आजीविका के लिए आ रहा कोई दास के रूप में आ रहा है। कुछ नहीं सूझता तो अपना रक्त-मांस ही देखने चले आ रहे हैं।'' सहसा उसका चिन्तन-प्रवाह दूसरी ओर मुड़ गया, ''आजीविका के लिए आए हो तो यहां खर्राटे क्यों ले रहे हो? तुम राजाधिराज हो या राजकुमार या कोई सामंत कि रात-भर गणिका-भवन में विलास के पश्चात् प्रातः सोने के  अभ्यस्त हो? श्वसुर आएंगे आजीविका कमाने और काम का समय निकाल देंगे सोने में।'' वह झल्लाया-सा बोला, ''चलो भागो अब।''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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